हमारा भारत देश कृषि प्रधान देश है। यहां के अधिकांश लोग कृषि पर निर्भर है। यहां अनेक प्रकार कि फसलों का उत्पादन होता है। देश के विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग स्थानों पर मौसम के अनुसार कृषि कार्य करते हैं। देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का भी बहुत बड़ा योगदान है। आदिवासियों की हम बात करें तो ये लोग बड़े-बड़े जंगलों को साफ कर कृषि योग्य भूमि का निर्माण किए हैं। यह अपने निवास स्थान के इर्द-गिर्द में ही खेती के लिए बाड़ी का निर्माण करते हैं।
इतिहास के पन्नों में हमें यही बताते हैं कि, आदिवासी झूम कृषि के माध्यम से अपने आस-पास के जगहों को साफ कर पेड़-पौधों के सुखे पत्तों व लकड़ीयों को एकत्रित कर आग लगा देते थे। फिर उन स्थानों पर बीज का छिड़काव कर देते थे। बारिश के होने पर बीज का अंकुरण होता था। उन आग के राख, किटनाशक के तौर पर कार्य करते थे। जिससे फसलों को फगल्स अथवा कीटों से फसलों को नुकसान होने से बचाया जाता था।
प्रायः आदिवासी अपने खाने-पीने का प्रंबध जंगलों से प्राप्त कंद-मूल, फल फूल आदि से कर लेते थे। तथा जो बीज बच जाता था, उसे अपने निवास स्थान आस-पास में फेंक दें रहते थे। जिससे उन बीजों से पेड़-पौधों तैयार होकर फल लग जाया करता था। इसे ही देखकर इनके मन में अपने आस पास सब्जी उगाने का तरीका आया। और वे खेती, बाड़ी करना आरंभ कर दिए। जिससे उन्हें यह ज्ञात हुआ कि, खाने के लिए जंगल पर निर्भर नहीं हो सकते हैं बल्की स्वयं उगा कर भी अनाज का भंडारण कर सकते हैं। जिससे अब दूर दूर जंगलों में भटकने की जरूरत नहीं है जिन चीज़ों को लाने में समय लगता था,अब वह हमारे पास मौजूद हैं।
आज हम बात करेंगे गोंडरी व्यवस्था के बारे में। गोंडरी शब्द गोंडी भाषा से लिया गया है। गोंडरी का अर्थ होता है, बाड़ी या बखरी। जहां से हमें रोजना ताजे हरे सब्जियां प्राप्त होती है। आदिवासियों का गोंडरी (बाड़ी) से बहुत ही लगाव होती है, चाहे वह छोटा सा जगह ही क्यों न हो? आदिवासियों के आंगन में एक छोटा सा स्थान होता है, जहां अक्सर महिलाएं बर्तन मजाने का कार्य करती हैं, बर्तन को पानी से साफ करने के बाद जो पानी बहता है, उस पानी का सदुपयोग बाड़ी के पटवन के लिए कर लेते है। ऐसे स्थानों में लाता वाले सब्जियों के मचान देखने को भी मिल जाते हैं। जिसमे कुंदरु, तोरई या करेला के नार (लता) मचान में आसानी से देखने को मिल जायेंगे। साथ ही आस पास में टमाटर, बैंगन, लहसुन, प्याज आदि लगा कर घर की छोटी-छोटी सब्जियों की जरूरतों को आसानी से पूरा कर लेते हैं।गोंडरी में अनेक प्रकार के लगे पेड़-पौधे
आदिवासी अपने गोंडरी बाड़ी के माध्यम से अनेक मौसमी सब्जियां लागाते है, जो उनके आमदनी बढ़ने का काम तो करते ही है। साथ ही धन के फिजूल के खर्चे को कम कर अपना आर्थिक स्थिति बेहतर करने में सहायक होते हैं। इन गोंडरी लगा कर हमें अनेक तरह से फायदे ले सकते हैं। इनसे हम अपनी सेहत के लिए हरी भरी सब्जी प्राप्त कर सकते है जो शरीर के स्वास्थ्य लिए जरूरी होता है। इन हरे-भरे सब्जियों में विटामिन एवं पोषक तत्व से परिपूर्ण होते है।मचान पर चढ़ते पौधों के लताएं
गोंडरी आदिवासीयों के सरल जीवन के लिए आर्थिक स्थिति को संतुलन प्रदान करता है। ये रोजमर्रा की छोटी-छोटी जरूरतें को पूरा करते है। जिससे इनका घरेलू खर्च महंगाई में भी नियंत्रित रहता है। यह एक ऐसा व्यवस्था है, जिससे हम सब्जीऔर फल लगाने के लिए दूसरों को भी प्रेरित कर सकते हैं। जिसमें ताजे हरे भरे फल फूल जैसे– गाजर, लोकी, कुमडा, गोभी, भिडी, बैंगन, मिर्ची, धनिया, मेथी, तोराई, खेकसी पालक, जिमीकन्द, नागर कंद, कोचाई ,सेमी, हल्दी आदि के साथ-साथ और बहुत से पेड़-पौधे जो उपयोगी होते हैं जैसे – आम पेड़, सीताफल, केला, मुनगा, नारियल ,निम्बु, इमली, पपीता, जामपेड, मुसब्बी, संतरा बोहरभाजी का पेड़, स्लपी पेड़, इसके अलावा मंडियां, कोदो, तिकुर आदि को अपने घरों के आस-पास लगा सकते हैं। जो हमारे भोजन चक्र को आसानी से पूरा करता है। साथ ही ये हमारे शरीर के आवश्यक पोषक तत्वों के स्रोत होते हैं।
आदिवासियों के लिए गोंडरी व्यवस्था, आदिवासी जीवन शैली का आधार है। यह इनके घर के आर्थिक स्थिति को एक बेहतर संतुलन प्रदान करता है एवम इन्हें स्वावलंबी एवं स्वरोजगारमुखी बनाते हैं। हम सभी को इस गोडरी व्यवस्था को अपनना चाहिए, जिसका एक फायदा तो साफ दिखता है कि, घर का जो अतिरिक्त खर्च मार्केट (बजार) से सब्जी लेने में होता है, उस पैसे की बचत हो जाती है।
नोट: गरियाबंद जिले के चमन नेताम द्वारा लिखित यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, जिसमें ‘प्रयोग समाजसेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।